चलते चलते जाने कैसे पाँवतलेकी राहें बदलीं
किस मक़ाम आ गयी ज़िंदगी - किस मंज़िलकी खोज में निकली
दिलका कोई पुर्ज़ा बीते लम्होंसे अबतलक जुडा है
मैं निकला, पर मेरा साया उसी मोड़पर वहीं खडा़ है
पास उसीके छोड आया हूँ अपने ख़्वाब, उम्मीदें सारी
वहीं हैं नींदें, वहीं सुकूँ है, और वहीं है याद तुम्हारी
अब तो इस अनजान शहरकी सूनी गलियोंमें फिरता हूँ
ख़ुदसे रहता हूँ बेगाना, लोगोंसे मिलता फिरता हूँ
शक्लोसूरत, नाम भी है इक, दरवाजेपर लटक रहा है
मकीं न जाने कहाँ कहाँ पर तलाशता कुछ भटक रहा है..
9 comments:
waah!...kya baat hai!
waah!... kya bat hai!
सुभानअल्ला, बहुत खुब, बहोत ही वजन है इस गजल मे । तबीयत खुष हो गयी ।
जिन्हें दुनिया बनाती है, मक़ाम उन का नही बनता
ज़माना उनका है जो ख़ुद बनाते है मक़ाम अपना ।
- बिस्मिल सईदी
कहॉं मै शहरे महब्बत में जा के ठहरुंगा
तलाश जिसकी है दिल को वही अगर न मिला ।
- अनवर अदीज
"दिलका कोई पुर्ज़ा बीते लम्होंसे अबतलक जुडा है
मैं निकला, पर मेरा साया उसी मोड़पर वहीं खडा़ है
"...
वल्लाह! क्या कहने...!! :-)
kyaa baat hai!
पास उसीके छोड आया हूँ अपने ख़्वाब, उम्मीदें सारी
वहीं हैं नींदें, वहीं सुकूँ है, और वहीं है याद तुम्हारी
>>>> faar aawaDalaM!
मकीं mhaNaje?
पास उसीके छोड आया हूँ अपने ख़्वाब, उम्मीदें सारी
वहीं हैं नींदें, वहीं सुकूँ है, और वहीं है याद तुम्हारी
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kyaa baat hai swatee; keep it up :)
पास उसीके छोड आया हूँ अपने ख़्वाब, उम्मीदें सारी
वहीं हैं नींदें, वहीं सुकूँ है, और वहीं है याद तुम्हारी
khoop chhaan!
swati kya baat hai... jiyo!
kyaa baat hai!
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